00 खिले चेहरे, सपनों को मिली उड़ान
खिले चेहरे, सपनों को मिली उड़ान

मुरझाते सपनों को हवा-पानी की थोड़ी सी सही, लेकिन ठीक खुराक मिले तो वे फिर खिलने-महकने लगते हैं। इसकी बानगी 9-10 फरवरी, 2016 को देखने को मिली। अतुल माहेश्वरी छात्रवृत्ति- 2015 में सफल होकर दिल्ली आए 38 विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों की खुशी के रूप में। छात्रवृत्ति के चेक पाना, केंद्रीय शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी से सम्मानित होना और देश के प्रधानमंत्री का विशेष संदेश- आर्थिक रूप से कमतर लेकिन प्रतिभा से भरपूर इन युवाओं के लिए यह सब सपने से भी पार की बात थी। छह राज्यों से आये ये 38 परिवार आते समय अलहदा परिवार थे, लौटते वक्त हरेक के पास देश के कई राज्यों में अपना एक-एक करीबी परिवार था।

गौरतलब हो कि अमर उजाला फाउंडेशन ने अगस्त, 2015 में अपने प्रसार क्षेत्र में आने वाले छह राज्यों (दिल्ली छोड़कर) के प्रादेशिक बोर्डों में पढ़ने वाले और डेढ़ लाख से कम सालाना पारिवारिक आय वाले परिवारों के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति के लिए आमंत्रित किया था। सवा लाख से भी अधिक आवेदन ऑनलाइन और डाक द्वारा मिले। उनमें से पात्र पाये गये करीब 68 हजार को लिखित परीक्षा के लिए एडमिट कार्ड भेजे गए। फिर 51 शहरों और अमर उजाला के 18 प्रकाशन केन्द्रों पर चली कई चरणों की चयन प्रक्रिया से 36 विद्यार्थी छात्रवृत्ति के हकदार बने। दो दृष्टिहीन विद्यार्थियों को विशिष्ट छात्रवृत्ति के लिए चुना गया।

नौंवीं-दसवीं में पढ़ने वालों को 30-30 हजार और 11-12वीं वालों को 50-50 हजार की एकमुश्त छात्रवृत्ति के रूप में चेक दिए गए। ये 38 परिवार दो दिन के लिए दिल्ली बुलाए गए- सम्मान पाने और दिल्ली घूमने के लिए। प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक-एक परिवार की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि जानी और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमर उजाला फाउंडेशन के इस प्रयास की सराहना करते हुए सभी सफल विद्यार्थियों को संदेश भेजा। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने अपने कार्यालय में सबको सम्मानित किया। एक-एक विद्यार्थी से दिल को छूने वाली और हौसला बढ़ाने वाली बातें कीं। इन 38 परिवारों के लिए इन दो दिनों में उनकी जिंदगी के अविस्मरणीय पलों का विस्तार सिमटा हुआ था।

  • 9 फरवरी, 2016 को इन बच्चों का नोएडा स्थित अमर उजाला कार्यालय में भावभीना स्वागत,
  • अमर उजाला के मुख्यालय का भ्रमण, फिर संस्थान के मुखिया राजुल माहेश्वरी से जी भर के बातचीत 
  • 8 फरवरी सुबह 7.30 बजे से दिल्ली की सैर।

इस दौरान ​​​​​​​विद्यार्थियों के नए दोस्त तो बने ही बने, अभिभावकों को भी आपस में अपने बुझते-टूटते अरमानों के फिर से संभलने का सुख बांटने और नई जान-पहचान करने का मौका मिला। इन परिवारों में से 90 फीसदी ने पहली बार दिल्ली दर्शन किया। इस समूचे कार्यक्रम की एक और खास बात यह थी कि ये 38 परिवार ही नहीं, इस काम को अंजाम देने वाली समूची टीम, जिसमें वालंटियरों की टीम और टूरिस्ट बस के ड्राइवर भी शामिल थे, सब आपस में एक परिवार के अपनापे से बरत रहे थे। अवसर और अर्थ के अभावों को केवल प्रतिभा के बल पर मिटते देखने की खुशी की धारा एक तरफ थी और ऐसा सच्चा काम करने और ऐसी खुशी के साक्षी बनने और उसमें कुछ भूमिका अदा कर पाने की खुशी की धारा दूसरी तरफ- और इन दो धाराओं के सहज संगम का असर था यह।

मुझे तो नेता बनना है:
मेरठ से आए 12वीं के छात्र पवित से जब पूछा गया कि बड़े होकर वह क्या बनना चाहता है, तो उसने कहा, ′मुझे तो नेता बनना है। देश की राजनीति को ईमानदार युवाओं की जरूरत है और आईएएस, पीसीएस, डॉक्टर, इंजीनियर तो सभी बच्चे बनना चाहते हैं, लेकिन नेता बनकर देश और समाज सेवा के बारे में कोई नहीं सोचता।′ मैं कॉलेज में एडमिशन लेकर सबसे पहले छात्र नेता और फिर विधायक या सांसद बनना चाहता हूं। पवित ने अपने इस लक्ष्य का जिक्र जब स्मृति ईरानी से किया, तो राजनीति में पवित की दिलचस्पी देखकर वह भी बहुत खुश हुईं।
 
कानपुर किसी शहर से पीछे नहीं:
दिल्ली भ्रमण के दौरान कानपुर का वैभव जब अपने दोस्तों के साथ बस यात्रा कर रहा था, तो कुछ दोस्तों में चर्चा यह छिड़ गई कि हमारा शहर कितना आगे है। विश्वास जम्मू का गुणगान कर रहा था, तो हिमांशु लखनऊ का और निखिल नैनीताल का। लेकिन, इस चर्चा में बाजी मारी वैभव ने उसने अपने दोस्तों को बताया कि कानपुर किसी मामले में किसी मेट्रो शहर से पीछे नहीं है। यहां अंतराष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट स्टेडियम (ग्रीन पार्क), भारतीय रिजर्व बैंक का रिजनल ऑफिस और भारतीय जीवन बीमा निगम का जोनल ऑफिस भी है।
 
ईश्वर हमेशा परीक्षा लेता है
श्रुति कहती हैं कि हम कोई अच्‍छा काम करते हैं, तो भगवान परीक्षा लेता है। पढ़ाई में आर्थिक तंगी के चलते चुनौतियां तो हैं, तो अमर उजाला की इस छात्रवृत्ति से कुछ राह आसान होने की उम्मीद जगी। अमर उजाला के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए दिल्‍ली रहे थे लेकिन बर्फबारी से रास्ते सारे बंद हो गए। इससे वाहनों की आवाजाही बंद हो गई। इसके चलते हमें ठंडी हवाओं और बर्फीले रास्तों पर छह किलोमीटर तक पैदल यात्रा करनी पड़ी। लेकिन, दिल्ली आने का उत्साह इतना था कि जरा भी थकान नहीं हुई और फिर शिमला से दिल्ली की बस में यात्रा कर आपके सामने पूरी ऊर्जा के साथ हूं।
 
जगजीत सिंह की गजलों से प्रेरित हूं:
गोरखपुर से आए 12वीं के छात्र दिलीप कुमार यादव इतिहास में पीएचडी करना चाहते हैं व कॉलेज में प्रोफेसर बनना चाहते हैं। नेत्रहीन दिलीप में गजब का आत्मविश्वास है। संगीत सुनने के शौकीन दिलीप जगजीत सिंह की गजलों के मुरीद हैं। दिलीप के अनुसार, जगजीत सिंह की गजलें मन में गहरे उतरती हैं और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं।
 
भावुक अभिभावक बोले, शब्द नहीं हैं हमारे पास:
′′सच बताऊं तो पहली बार दिल्ली आया हूं। कभी सोचा भी नहीं था कि हम इस तरह से दिल्ली आएंगे। हमारे जैसे छोटे जोत वाले किसानों का दिल्ली आने का क्या काम। यह बहुत यादगार यात्रा है। बेटा अतुल माहेश्वरी छात्रवृत्ति के लिए चुना गया है, सुन कर तो यकीन नहीं हुआ। हम भले ही बहुत गरीब हैं, लेकिन बच्चों को लेकर तो हमारे भी सपने बहुत ऊंचे हैं, यह ठीक है कि गरीब के जीवन में कठिनाइयां बहुत आती हैं, लेकिन हम भी हिम्मत हारने वाले नहीं है।′′ यह कहते हुए थोड़ा भावुक हो जाते हैं टिहरीगढ़वाल के हिमांशु के पिता ओम प्रकाश। इसी तरह से देहरादून की शरवीन परवीन की मां शबाना कहती हैं, यहां आकर बहुत अच्छा लग रहा है। बेटी ने पहले भी हमें गर्व महसूस कराया है। यह छात्रवृत्ति हमारे जीवन में नया रंग भरेगी। हरियाणा के हिसार जिले के अश्वनी के पिता ने केवल इतना ही कहा, बस क्या कहूं। मेरे पास तो शब्द ही नहीं कुछ कहूं। बस हाथ जोड़ सकता हूं।
 
आंखों के रास्ते छलक रहा था गम:
दस फरवरी शाम करीब सात बजे। जाने के लिए सभी बसों बैठे थे। हर कोई फिर मिलने की बात कह रहा था। तभी नैनीताल के प्रत्यक्ष गौड़ के पिता वेदानंद ने कहा- सर, घर जाने का मन नहीं हो रहा है। आप जबरदस्ती भेज रहे हैं। आप ही पूछ लीजिए क्या कोई आज यहां से जाना चाहता है, बस में बैठे सभी अभिभावक एक ही स्वर में बोले-नहीं। कुछ चेहरों पर बिछुड़ने का गम तो कुछ का गम आंखों के रास्ते छलक रहा था।
 
बेटे से पूछता हूं, यह सपना तो नहीं...
बच्चे और अभिभावक नौ फरवरी की रात गेस्ट हाउस में भोजन कर रहे थे। सभी बार-बार खाने की और व्यवस्था की तारीफ कर रहे थे। उनमें से विदनेश तिवारी, गुलाब चंद, दिलशेर आदि अभिभावक जो किसान लग रहे थे, ने कहा-मैंने तो सपने में भी इस तरह के स्वागत की कल्पना नहीं की थी। आप लोगों के कारण ही पहली बार दिल्ली आने का मौका मिला। हम बहुत कम जोत वाले किसान हैं। इस तरह तो हम किसी होटल में भी आज से पहले कभी नहीं ठहरे। कभी सोचा नहीं था कि ऐसे कमरों में ठहरेंगे, ऐसी बसों में सफर करेंगे और कभी इंडिया गेट, लाल किला और राष्ट्रपति भवन अपनी आंखों से देख पाएंगे। अपने आप पर विश्वास नहीं हो रहा है। कई बार बेटे से पूछता हूं, यह सपना तो नहीं?
 
आमतौर पर 1.5 लाख से कम वार्षिक आय वाले परिवारों को कम ही मौका मिलता है कि वह भारत के अलग-अलग प्रांतों का भ्रमण करें। ऐसे में युवाओं में यह उत्सुकता स्वाभाविक है कि अलग-अलग प्रांत की सभ्यताओं में, रहन-सहन आदि में कैसे अंतर होते हैं। अतुल माहेश्वरी छात्रवृत्ति ने छात्र-छात्राओं के लिए 9-10 फरवरी को ऐसा एक मंच दिया जहां अलग-अलग रीति-रिवाजों और प्रांतों के लोग एक जगह मिले। जम्मू से आए विश्वास और शाहजहांपुर के रचित ने तो ऐसी जोड़ी बनाई कि उनके माता-पिता भी चकित रह गए। विश्वास की मां ने बताया कि इन दो दिन में विश्वास और रचित अपने मां-बाप को भी भूल ही गए। कुछ ऐसा ही हाल मुरादाबाद की सुगरा और शिमला से आई श्रुति, जम्मू की मीनल और देहरादून की शरमीन, और कई अन्य छात्रों का भी था।
 
संदीप बना दिलीप और राजकुमार की दृष्टि:
गोरखपुर से नोएडा आते समय संदीप और उसके पिता का टिकट कंफर्म नहीं हो पाया। संदीप किसी भी तरह से दिल्ली पहुंचना चाहता था। उधर, दृष्टि बाधित दिलीप और राजकुमार के पास तीन सीटें थी और चार लोग बैठने वाले। दिलीप ने बेहिचक उसमें से एक सीट संदीप को दे दी। इस तरह से एक आत्मीय रिश्ते की शुरुआत हो गई। अगले दो दिन तक जहां भी छात्रों को घुमाया गया, संदीप लगातार दिलीप और राजकुमार के साथ उनकी आंखें बने रहे।
 
देश के हर कोने में है अब हमारा घर..
जितना उत्साह छात्रवृत्ति पाने वाले छात्रों में था, उतना ही उनके साथ आए अभिभावकों में भी था। 10 फरवरी की शाम को जब विद्यार्थियों को मानव संसाधन मंत्रालय ले जाया गया, उस वक्त सभी अभिभावकों को दिल्ली के इंद्रस्थ पार्क में ले जाया गया। उस एक घंटे में सभी अभिभावक एक परिवार की तरह समूह में बैठ गए और सभी ने दिल खोल कर एक-दूसरे से बातचीत की। सबने अपने-अपने गांव के बारे में बताया, एक दूसरे से अपने नंबर और घर के पते साझा किए और सभी को अपने-अपने घरों में आमंत्रित किया। तभी रचित के पिता जी साथ आए फाउंडेशन के साथी को धन्यवाद देते हुए कहा, ′′हमे इस बात की खुशी है कि हमारे बेटे को छात्रवृत्ति मिली। पर उससे ज़्यादा खुशी इस बात की है कि देश के कई हिस्सों में अब हमारा एक घर, एक दोस्त है।′′
कई नए रिश्ते जुड़े, कई नए अनुभव मिले..
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